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बारिश का इंतज़ार करते–करते संजीवन और सुगना की उम्मीदें दम तोड़ने लगी थीं। बादल घिर– घिर कर आते और धरती को गीला किये बिना ही निकल जाते। यदि तीन चार दिन और वर्षा नहीं होती है तो खेतों में बोया बीज खराब हो जाएगा, यही चिंता दोनों को खाये जा रही थी। शाम हो चली थी। केवल पश्चिम दिशा में काले मेघों का जमावड़ा था जिनमें से रह–रह कर कभी-कभी सूर्य देव भी झाँक लेते थे।
“अरी, जल्दी से बाहर तो आ, देख कितना बड़ा इंद्रधनुष निकला है, संजीवन ने सुगनी को पुकारा।“
सुगनी बाहर आकर आकाश में निकले इंद्रधनुष को देख कर बोली , “लगता है इन्दर देवता भी हम से नाराज हैं तभी तो अपने इतने बड़े धनुष से हमें डरा रहे हैं।”
“अरी नहीं पगली, देवता तो हमारे माता-पिता सामान होते हैं कोई माता-पिता भला कभी अपने बच्चों से नाराज हो सकता है क्या, संजीवन ने सुगना को दिलासा दिया।“
रात में झोंपड़ी के छप्पर पर टप-टप की आवाज से संजीवन की नींद खुली और वह उठकर बाहर आया I झोंपड़ी का दरवाजा खोलते ही वर्षा की बूंदों ने भिगोते हुए उसे जैसे बाँहों में भर लिया I
वह ख़ुशी से चिल्लाया, “देख सुगना मैं कहता था न कि माता-पिता अपने बच्चों से कभी नाराज नहीं हो सकतेI”
खुशी से बारिश में भीगते हुए संजीवन की आँखों में बाहर फैले अँधेरे में भी एक बड़ा-सा इन्द्रधनुष उभर आया
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