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सप्तम् नवरात्र के दिन देवी दुर्गा के कालरात्रि रूप के पूजन का विधान है I
श्री दुर्गा कवच के चतुर्थ श्लोकानुसार मां दुर्गा की नौ शक्तियों में सातवीं शक्ति का नाम कालरात्रि है I नवरात्रों के सातवें दिन माँ के इसी रूप की पूजा एवं अर्चना का महत्व तथा विधान है I
कालरात्रि का शाब्दिक अर्थ है “ काल की मृत्यु” I यहाँ पर काल से समय और मृत्यु दोनों का अभिप्राय है I दुर्गा सप्तशती के प्राधानिक रहस्य के अनुसार :
“सबकी आदिरूपा सत्व , रज , तम तीनों गुणों वाली परमेश्वरी महालक्ष्मी हैं I वह लक्ष्य और अलक्ष्य स्वरूपा है तथा सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है I परमेश्वरी ने सम्पूर्ण संसार को शून्य देख कर केवल तमोगुण से एक दूसरा श्रेष्ठ रूप धारण किया है I इस रूप वें वह काजल के ढेर के समान कान्ति वाली , दाढ़ों से शोभायमान , सुंदर मुख वाली , विशाल नेत्रों से शोभित तथा पतली कमर वाली स्त्री रूप हैं I ढाल , तलवार , प्याले और कटे हुए मस्तक से सुशोभित चार भुजा वाली और वक्षस्थल पर मुण्डों की माला धारण किये हुए उस तामसी स्त्री ने महालक्ष्मी से कहा – हे माता ! तुम मेरा नाम रखो और मुझे काम बताओ, मैं तुमको नमस्कार करती हूँ I महालक्ष्मी ने उस तामसी स्त्री से कहा – महामाया , महाकाय , महामारी , क्षुधा , तृषा , निद्रा , तृष्णा , एकवीरा , कालरात्रि , और दुरत्यया , यें तुम्हारे नाम कर्मों के अनुसार हैं I इन नामों से तुम्हारे कर्मों को जानकर जो मनुष्य तुम्हारी स्तुति करता है वह सुख पाता है I
दुर्गा सप्तशती के आठवें अध्यायानुसार (श्लोक 38 – 63 ) : असुरों से युद्ध के समय शिवदूती के प्रचंड अट्टहास तथा प्रहार से राक्षस सेना भाग खडी हुई I सेना को भागते देख महापराक्रमी राक्षस रक्तबीज आगे बढ़ा I रक्तबीज के शरीर से रक्त की बूँदें जैसे ही पृथ्वी पर गिरती तुरंत वैसे ही शरीर वाला तथा वैसा ही बलवान दैत्य पृथ्वी से उत्पन्न हो जाता तथा युद्ध के लिए तत्पर हो जाता I इस प्रकार रक्तबीज के उत्पन्न सम्पूर्ण दैत्य उग्र शस्त्रों के साथ युद्ध करने लगे I देवी के प्रहारों से बार –बार घायल होने से जो रक्तबीज का जो रक्त पृथ्वी पर गिरा उससे उत्पन्न हुए असुरों से सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो गया जिससे देवता भयभीत हो गए I देवताओं को अत्यंत भयभीत देख देवी चंडिका ने देवी कालरात्रि से कहा – हे चामुंडे ! तुम अपना मुख और भी विस्तार से फैला दो I मेरे शस्त्र प्रहार से गिरते रुधिर बिन्दुओं तथा इनसे उत्पन्न दैत्यों को अपने मुख द्वारा निगलती जाओ I इस प्रकार भक्षण करती हुई भ्रमण करोगी तो इस रक्तबीज का सम्पूर्ण रक्त समाप्त हो जाएगा तथा नए दैत्य नहीं पैदा होंगे I इस प्रकार चंडिका द्वारा प्रेरित हो कालरात्रि पृथ्वी पर गिरने से पहले ही रक्तबीज का रक्त पी जाती और उससे उत्पन्न हुए दैत्यों का भी भक्षण कर लेती I तदनंतर रक्त विहीन हुए रक्तबीज को चंडिका ने अपने अस्त्रों शास्त्रों द्वारा मार डाला I
एक अन्य कथानुसार मधु कैटभ नामक महापराक्रमी असुर से जीवन की रक्षा हेतु भगवान विष्णु को निंद्रा से जगाने के लिए ब्रह्मा जी ने देवी मां की स्तुति की थी। यह देवी काल रात्रि ही महामाया हैं और भगवान विष्णु की योग निद्रा हैं। इन्होंने ही सृष्टि को एक दूसरे से जोड़ रखा है।
यह रूप दुर्गा का सबसे उग्र तथा भयानक रूप है I इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में मुंड माला के साथ विद्युत की तरह चमकने वाली एक अन्य माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निकलती रहती हैं। माँ की नासिका के श्वास – प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ (गदहा) है।
लेकिन इस रूप में देवी सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं इसी कारण इनका एक नाम ‘शुभांकरी’ भी है।
माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली हैं। इनके उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है।
देवी दुर्गा के इस रूप की पूजा तांत्रिक क्रिया की साधना करने वाले भक्तों के लिए अति महत्वपूर्ण होती है । तंत्र साधना करने वाले साधक मध्य रात्रि में देवी की तांत्रिक विधि से पूजा करते हैं।
सर्वसाधारण के लिए शास्त्रों में वर्णित पूजा विधान के उसके अनुसार पहले कलश की पूजा करनी चाहिए फिर नवग्रह, दश दिक्पाल, देवी के परिवार में उपस्थित देवी देवताओं की पूजा करनी चाहिए फिर मां कालरात्रि की पूजा करनी चाहिएI
देवी की पूजा के बाद शिव और ब्रह्मा जी की पूजा भी अवश्य करनी चाहिए। मां को गुड़ का भोग लगाने की भी मान्यता है I
देवी की पूजा से पहले निम्न मंत्र द्वारा देवी का ध्यान करना चाहिए।
देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
जो उपासक देवी कि गहन पूजा में आस्था रखने वाले है उन्हें निम्न का भी पाठ करना चाहिए :
ध्यान हेतु –
करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।
कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम॥
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।
अभयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघ: पार्णिकाम् मम॥
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।
घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।
एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृध्दिदाम् II
स्तोत्र पाठ-
हीं कालरात्रि श्री कराली च क्लीं कल्याणी कलावती।
कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता॥
कामबीजजपान्दा कमबीजस्वरूपिणी।
कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी॥
क्लीं हीं श्रीं मन्र्त्वर्णेन कालकण्टकघातिनी।
कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा॥
कवच-
ऊँ क्लीं मे हृदयं पातु पादौ श्रीकालरात्रि।
ललाटे सततं पातु तुष्टग्रह निवारिणी॥
रसनां पातु कौमारी, भैरवी चक्षुषोर्भम।
कटौ पृष्ठे महेशानी, कर्णोशंकरभामिनी॥
वर्जितानी तु स्थानाभि यानि च कवचेन हि।
तानि सर्वाणि मे देवीसततंपातु स्तम्भिनी॥
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