बिखरे मोती
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सुधीर और उसके मित्र दोनों के हाथ में व्हिस्की के गिलास थे I पास ही सुधीर का 6 वर्ष का बेटा भी खेल रहा था I
“और सुनाओ यार कैसे हो? कैसी चल रही है तुम्हारी नौकरी ? सुधीर ने मित्र से पूछा ?”
“बस अपनी तो आजकल मौज है; जिस कुर्सी पर आजकल हूँ पैसा ही पैसा है I”
“यार ये रिश्वत भी क्या चीज है, खाए जाओ खाए जाओ पर पेट ही नहीं भरता है, मित्र ने नशे में झूमते हुए कहा I”
“यार बात तो तुम्हारी बिलकुल सही है, रिश्वत चीज ही ऐसी है, सुधीर ने व्हिस्की का बड़ा सिप लेते हुए कहा I”
अगले दिन सुबह नाश्ते की मेज पर – “पापा ये रिश्वत बहुत टेस्टी होती है ना? कल अंकल भी कह रहे थे रिश्वत भी क्या चीज है खाए जाओ खाए जाओ पर पेट ही नहीं भरता है ; पापा मुझे भी खिलाओ ना रिश्वत !”
घर की नींव में शायद दीमक लगने की शुरुआत हो चुकी थी I
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