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अगले वर्ष उत्तर प्रदेश में विधान सभा के चुनाव होंगेI इन चुनावों में जो बड़ी पार्टियां हिस्सा लेंगी वें हैं बसपा, सपा, बीजेपी और कांग्रेसI यह बात जग जाहिर है कि जहां अच्छाइयां होती है वहां बुराइयां भी धीरे–धीरे अपना घर कर लेती हैI यह बात हमारी राजनीतिक पार्टियों के लिए भी सत्य हैI इन सभी दलों में जहां अपनी-अपनी दलगत विशेषताएं हैं तो वहीं समय के साथ-साथ इन दलों में उभरी कमियों ने इनको अन्दर से खोखला किया हैI किसी भी संस्था चाहे वो सरकारी हो या स्वयं सेवी हो या राजनीतिक हो उसकी सफलता और उसका अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि कितना जल्दी वह अपनी कमियों को चिह्नित कर उन्हें दूर करने का प्रयास करती हैI यदि कोई संस्था इन कमियों को लगातार नज़र अंदाज कर उनके निराकरण के प्रति उदासीन रहती तो उस संस्था का भविष्य निश्चित तौर पर अनिश्चित हो जाता हैI
पहले हम बसपा का विश्लेषण करेंI जब भी कोई राजनीतिक पार्टी केवल एक चेहरे के बल पर आगे बढ़ती है तो उस पार्टी का भविष्य भी कुछ वर्ष या दशक का ही होता हैI बसपा के जन्मदाता स्वर्गीय श्री कांशीराम जी शायद इस बात को भलीभांति समझ गए थे कि केवल एक चेहरे के बलबूते किसी भी राजनीतिक पार्टी को बहुत अधिक समय तक जीवित नहीं रखा जा सकता है और इसी कारणवश शायद वे मायावती को पार्टी के दूसरे चेहरे के रूप में आगे लाये लेकिन मायावती जी ने इस परिपाटी को दरकिनार करते हुए पार्टी में केवल अपनी छवि को ही संवारने का काम किया जिसके चलते यह पार्टी वर्तमान में केवल एक व्यक्तिगत पार्टी की तरह बन कर रह गयीI इसका परिणाम यह हुआ एक पार्टी जो पंजाब से निकल कर बहुत तेजी से अन्य राज्यों में फ़ैली कांशीराम जी के बाद राष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभाव अधिक समय तक कायम नहीं रख सकी और धीरे–धीरे सिमटते-सिमटते उत्तर प्रदेश तक ही सीमित होकर रह गयीI इस पार्टी की कार्यप्रणाली को देख कर लगता है कि इस पार्टी में शीर्षस्थ नेता के अलावा किसी भी अन्य नेता को आगे आने की इजाजत नहीं है इसलिए हो सकता है इस पार्टी का भविष्य मायावती जी के साथ ही समाप्त हो जाएI
इस पार्टी की नींव हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था की उस सोच के विरुद्ध रक्खी गयी थी जिसके चलते सदियों तक हिन्दू समाज के तीन वर्णों ने चौथे वर्ण (दलितों) पर अत्याचार किये और उन्हें शिक्षा एवं सामाजिक उन्नति में भाग लेने से वंचित रक्खाI इस मुद्दे को यदि राजनीतिक संरक्षण में समाज सुधार का मुद्दा बनाया जाता तो यह बसपा के लिए बहुत ही सफल मुद्दा होता लेकिन धीरे –धीरे ये मुद्दा सामाजिक सुधार से हट कर केवल एक राजनीतिक मुद्दा ही बन कर रह गया जिसके चलते कुछ गिने चुने दलित लोगों को राजनीतिक लाभ अवश्य मिला लेकिन अधिकतर दलित समाज के लोग जैसी आर्थिक और सामाजिक अवस्था में इस पार्टी के आने के पहले थे इस पार्टी के आने के बाद भी लगभग उसी अवस्था में ही रहेI
यह पार्टी मुख्यतः दलितों के वोट पर ही निर्भर है जो अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में ही बसते हैंI इस पार्टी के आने के बाद दलितों विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के दलितों को इस बात का विश्वास होने लगा था कि शायद अब उनके दिन भी बदलेंगे लेकिन जब ऐसा कुछ नहीं हुआ और उनका इस पार्टी से धीरे-धीरे मोह भंग होने लगाI हैI पार्टी के बहुत से पदाधिकारियों ने जो ग्रामीण परिवेश के थे और जो ग्रामीण दलित वोटों को पार्टी की ओर आकर्षित कर सकते थे धीरे-धीरे अपने आपको शहरों के सुखमय जीवन तक ही सीमित कर लिया और अपने वोट बैंक से दूर हो गएI
उधर पिछले गत वर्षों में इस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा अन्य तीन वर्णों के विरुद्ध दिए गए बयानों के चलते यह तय है कि इन तीन वर्णों के अधिकांश लोग इस पार्टी को वोट नहीं देंगेI यद्यपि पार्टी ने अपनी इस भूल को सुधारने के लिए समाज के इन तीन वर्णों के लोगों को भी अपनी तरफ आकर्षित करने का प्रयास किया है लेकिन अपने इस प्रयास में पार्टी कुछ ज्यादा सफल होती नहीं दीखती हैI हाँ यह जरूर हुआ कि इन वर्गों के कुछ लोग केवल अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस पार्टी में आये अवश्य लेकिन पार्टी को आगे ले जाने में उनका कोई योगदान नज़र नहीं आता हैI दूसरी ओर पार्टी में मायावती जी के एकक्षत्र राज के चलते इनमें से कोई भी पार्टी का एक सफल चेहरा नहीं बन पायाI इसी बात को लेकर पार्टी से लोगों का पलायन शुरू हो गया हैI
हालांकि पिछले दिनों हुए कुछ सर्वेक्षणों ने इस पार्टी को पिछले चुनावों की अपेक्षा ज्यादा सीट मिलने का अनुमान दिखाया है लेकिन किसी भी सर्वे ने इस पार्टी द्वारा अकेले के दम पर सरकार बनाने का कोई संकेत नहीं दिया हैI लगता भी ऐसा ही है कि पार्टी की वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रदेश में पार्टी द्वारा अपने बलबूते सरकार बनाना कोई आसन काम नहीं होगा और यदि पार्टी ऐसा करने में असफल होती है तो इस असफलता का सारा दायित्व पार्टी के शीर्ष एकल नेतृत्व को अपने ऊपर ही लेना होगाI ( …शेष …)
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